वांछित मन्त्र चुनें

ऋचो॒ नामा॑स्मि॒ यजू॑षि॒ नामा॑स्मि॒ सामा॑नि॒ नामा॑स्मि। येऽअ॒ग्नयः॒ पाञ्च॑जन्याऽअ॒स्यां पृ॑थि॒व्यामधि॑। तेषा॑मसि॒ त्वमु॑त्त॒मः प्र नो॑ जी॒वात॑वे सुव ॥६७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ऋचः॑। नाम॑। अ॒स्मि॒। यजू॑षि। नाम॑। अ॒स्मि॒। सामा॑नि। नाम॑। अ॒स्मि॒। ये॒। अ॒ग्नयः॑। पाञ्च॑जन्या॒ इति॒ पाञ्च॑जन्याः। अ॒स्याम्। पृ॒थि॒व्याम्। अधि॑। तेषा॑म्। अ॒सि॒। त्वम्। उ॒त्त॒म इत्यु॑त्ऽत॒मः। प्र। नः॒। जी॒वात॑वे। सु॒व॒ ॥६७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:67


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ऋग्वेद आदि को पढ़के क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जो मैं (ऋचः) ऋचाओं की (नाम) प्रसिद्धिकर्त्ता (अस्मि) हूँ (यजूंषि) यजुर्वेद की (नाम) प्रख्यातिकर्ता (अस्मि) हूँ (सामानि) सामवेद के मन्त्रगान का (नाम) प्रकाशकर्त्ता (अस्मि) हूँ, उस मुझ से वेदविद्या का ग्रहण कर (ये) जो (अस्याम्) इस (पृथिव्याम्) पृथिवी में (पाञ्चजन्याः) मनुष्यों के हितकारी (अग्नयः) अग्नि (अधि) सर्वोपरि हैं, (तेषाम्) उनके मध्य (त्वम्) तू (उत्तमः) अत्युत्तम (असि) है सो तू (नः) हमारे (जीवातवे) जीवन के लिये सत्कर्मों में (प्र, सुव) प्रेरणा कर ॥६७ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य ऋग्वेद को पढ़ते वे ऋग्वेदी, जो यजुर्वेद को पढ़ते वे यजुर्वेदी, जो सामवेद को पढ़ते वे सामवेदी और जो अथर्ववेद पढ़ते हैं वे अथर्ववेदी। जो दो वेदों को पढ़ते वे द्विवेदी, जो तीन वेदों को पढ़ते वे त्रिवेदी और जो चार वेदों को पढ़ते हैं वे चतुर्वेदी। जो किसी वेद को नहीं पढ़ते, वे किसी संज्ञा को प्राप्त नहीं होते। जो वेदवित् हों, वे अग्निहोत्रादि यज्ञों से सब मनुष्यों के हित को सिद्ध करें, जिससे उनकी उत्तम कीर्त्ति होवे और सब प्राणी दीर्घायु होवें ॥६७ ॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथर्गादिवेदाध्ययनेन किं कार्यमित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(ऋचः) ऋग्वेदश्रुतयः (नाम) प्रसिद्धौ (अस्मि) भवामि (यजूंषि) यजुर्मन्त्राः (नाम) (अस्मि) (सामानि) सामवेदमन्त्रगानानि (नाम) (अस्मि) (ये) (अग्नयः) आहवनीयादयः पावकाः (पाञ्चजन्याः) पञ्चजनेभ्यो हिताः। पञ्चजना इति मनुष्यनामसु पठितम् ॥ (निघं०२.३) (अस्याम्) (पृथिव्याम्) (अधि) उपरि (तेषाम्) (असि) (त्वम्) (उत्तमः) (प्र) (नः) अस्माकम् (जीवातवे) जीवनाय (सुव) प्रेरय ॥६७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! योऽहमृचो नामास्मि, यजूंषि नामास्मि, सामानि नामास्मि, तस्मान्मत्तो वेदविद्यां गृहाण। येऽस्यां पृथिव्यां पाञ्चजन्या अग्नयोऽधिषन्ति, तेषां मध्ये त्वमुत्तमोऽसि, स त्वं नो जीवातवे शुभकर्मसु प्रसुव ॥६७ ॥
भावार्थभाषाः - यो मनुष्य ऋग्वेदमधीते स ऋग्वेदी, यो यजुर्वेदमधीते स यजुर्वेदी, यः सामवेदमधीते स सामवेदी, योऽथर्ववेदं चाधीते सोऽथर्ववेदी। यो द्वौ वेदावधीते स द्विवेदी, यस्त्रीन् वेदानधीते स त्रिवेदी, यश्चतुरो वेदानधीते स चतुर्वेदी। यश्च कमपि वेदं नाऽधीते स कामपि संज्ञां न लभते। ये वेदविदस्तेऽग्निहोत्रादियज्ञैः सर्वहितं सम्पादयेयुर्यत उत्तमा कीर्त्तिः स्यात्, सर्वे प्राणिनो दीर्घायुषश्च भवेयुः ॥६७ ॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे ऋग्वेदाचे अध्ययन करतात ते ऋग्वेदी होत व जे यजुर्वेदाचे अध्ययन करतात ते यजुर्वेदी होत, तसेच ते सामदेवाचे अध्ययन करतात ते सामदेवी होत, तसेच जे अथर्ववेदाचे अध्ययन करतात ते अथर्ववेदी होत. जे दोन वेदांचे अध्ययन करतात, ते द्विवेदी व जे तीन वेदांचे अध्ययन करतात ते त्रिवेदी होत. जे चार वेदांचे अध्ययन करतात ते चतुर्वेदी होत. जे कोणत्याही वेदाचे अध्ययन करीत नाहीत. त्यांना कोणतीही संज्ञा प्राप्त होत नाही. जे वेदांचे जाणते असतात त्यांनी अग्निहोत्र वगैरे यज्ञ करून सर्व मानवांचे हित करावे. म्हणजे त्यांची उत्तम कीर्ती पसरेल व सर्व प्राणी दीर्घायू होतील.